हेमन्त शुक्ल
पिछले दिनों गोवा में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में अत्याधुनिक सिनेमैटोग्राफी की चर्चा के दौरान पता चला कि बॉलीवुड की फिल्मों में ट्रिक व स्पेशल इफेक्ट्स यानी चमत्कारी सिनेमैटोग्राफी के जनक कहे जाने वाले बाबूभाई मिस्त्री का निधन आज से 12 वर्ष पहले 93 वर्ष की उम्र में 20 दिसम्बर 2010 को मुम्बई में उस समय हो गया था
बाबूभाई मिस्त्री- पुण्यतिथि 20 दिसम्बर के लिए विशेष
जब उनकी ईज़ाद की हुई ट्रिक फ़ोटोग्राफी इंडियन फिल्म इंडस्ट्री को चरम् पर पहुंचा चुकी थी और हम हॉलीवुड की फिल्मों के समकक्ष पहुंच चुके थे। ऐसे प्रतिभाशाली फिल्मकार को हमारा नमन और हार्दिक श्रद्धांजलि। वर्ष 1931 में जब फिल्म ‘आलम आरा’ से हिंदुस्तानी सिनेमा को आवाज मिली
तब उस जमाने में हमारे देश में न तो सिनेमा का कोई ट्रेनिंग स्कूल था और न ही उन्नत तकनीक। कम्प्यूटर जैसा जादुई तन्त्र तो उस जमाने में हमारी कल्पना से भी दूर की बात थी। उसी समय हॉलीवुड की एक फिल्म जो स्पेशल इफेक्ट्स से भरपूर थी “ऐन इनविजिबल मैन” बम्बई में लगी और
उससे प्रभावित होकर उसी कथानक पर प्रकाश पिक्चर्स के बैनर तले हिंदी फिल्म की प्लानिंग आज के प्रमुख निर्देशक महेश भट्ट के बाबा निर्देशक नानाभाई भट्ट ने की और स्पेशल इफेक्ट्स की जिम्मेदारी सौंपी 18 साल के बाबूभाई मिस्त्री को जो तब कृष्णा फिल्म कंपनी में बतौर आर्ट डायरेक्टर काम कर रहे थे
तथा हातिमताई फिल्म में असिस्टेंट डायरेक्टर हो गए थे। उसी समय 1937 में नानाभाई भट्ट की यह फिल्म “ख्वाब की दुनिया” नाम से बनी जिसमें परदे पर अदृश्य शक्ति की मौजूदगी का एहसास करवाने के लिए बाबू भाई ने ठेठ देसी तरीकों का प्रयोग किया, जिसके निर्देशक थे विजय भट्ट,
संगीतकार लल्लूभाई नायक, गीतकार सम्पतलाल श्रीवास्तव ‘अनुज’ और मुख्य कलाकार थे जयंत, सरदार अख़्तर, शीरीन, उमाकांत, इस्माईल, माधव मराठे और ज़हूर। ‘ख़्वाब की दुनिया’ भारत में बनी पहली फ़िल्म थी जिसमें स्पेशल एफ़ेक्ट्स का इस्तेमाल किया गया था। निर्देशक विजय भट्ट के करियर की भी ये पहली फ़िल्म थी।
इसके लिए उन्होंने काले पर्दे को बैकग्राउंड में रखकर हल्की रोशनी में घरेलू चीजों का इस्तेमाल करते हुए काले धागे की मदद से अभूतपूर्व दृश्य की संरचना की और इसी कामयाब प्रयोग ने बाबूभाई मिस्त्री का स्पेशल इफ़ेक्ट निर्देशक बनने का रास्ता आसान कर दिया।
तब बाबू भाई का नाम ‘काला धागा’ भी रख दिया गया, उस समय वह इसी नाम से जाने जाते थे। गुजरात के सूरत में 5 सितम्बर 1917 को जन्मे बाबू भाई के पिता बिल्डिंग कांट्रैक्टर थे। उनके निधन के बाद विधवा मां और नौ छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी जब 14 साल के बाबू भाई के कंधों पर आ गयी
तो रोजगार की तलाश में वह बम्बई में अपने चाचा रंगीलदास भगवान दास के पास आ गए जो उन दिनों कृष्णा फिल्म कम्पनी में बतौर आर्ट डायरेक्टर काम कर रहे थे। उन्होंने बाबू भाई को ‘हातिम ताई’ फिल्म में असिस्टेंट डायरेक्टर लगवा दिया ताकि वह फिल्म कला के करीब पहुंचें और उसकी तकनीकियों को सीख सकें।
उस जमाने में जेबीएच वाडिया और होमी वाडिया की कम्पनी वाडिया मूवीटोन धार्मिक, फेंटेसी और स्टंट फिल्में बनाने के लिए जानी जाती थी। मात्र 15 साल की उम्र वाले बाबू भाई “ख्वाब की दुनिया” में पहले पहल स्पेशल इफेक्ट की जिम्मेदारी पा गए जिसे उन्होंने गम्भीरता से अपनाया और एक सफल ट्रिक फोटोग्राफर बन गए।
जिसके निर्देशक थे विजय भट्ट, संगीतकार लल्लूभाई नायक, गीतकार सम्पतलाल श्रीवास्तव ‘अनुज’ और मुख्य कलाकार थे जयंत, सरदार अख़्तर, शीरीन, उमाकांत, इस्माईल, माधव मराठे और ज़हूर। ‘ख़्वाब की दुनिया’ भारत में बनी पहली फ़िल्म थी जिसमें स्पेशल एफ़ेक्ट्स का इस्तेमाल किया गया था।
निर्देशक विजय भट्ट के करियर की भी ये पहली फ़िल्म थी। इस फिल्म की सफलता ने उन्हें वाडिया मूवीटोन की फिल्मों का खास हिस्सा बना दिया। अपने लम्बे करियर के दौरान उन्होंने सर्कस वाली, अलादीन और जादुई चिराग, गुल सनोबर, अलीबाबा और 40 चोर,
जगद्गुरु शंकराचार्य, सुनहरी नागिन, मिस्टर एक्स, अंगुलिमाल, हमराही, लव इन टोक्यो, तुमसे अच्छा कौन है, मेरा नाम जोकर, रोटी, ड्रीम गर्ल, बारूद, नागिन, धरमवीर, चरस, जमाने को दिखाना है जैसी फिल्मों और महाभारत, शिव महापुराण, कृष्णा, विश्वामित्र जैसे धारावाहिकों के लिए स्पेशल इफेक्ट्स को तैयार किया।
फिल्म अलादीन और जादुई चिराग का उड़ता हुआ कालीन हो या फिल्म औरत के क्लाइमेक्स में अदाकारों पर इमारत का गिरना या फिर ड्रीम गर्ल के टाइटल सॉन्ग में हेमा मालिनी के उड़ने का चर्चित दृश्य देखें तो यह सब बाबू भाई की कल्पनाशक्ति का ही कमाल रहे।
वर्ष 2005 में लिये गए एक साक्षात्कार में बाबू भाई मिस्त्री ने बताया था कि 1942 में वाडिया मूवीटोन से अलग होकर होमी वाडिया ने बसंत पिक्चर्स की शुरुआत की, जो वह दौर था जब बाबू भाई डायरेक्शन में भी हाथ आजमाना चाहते थे। ऐसे में उन्हें दोनों ही वाडिया बंधुओं ने पूरा सहयोग दिया।
उस समय जहां जेबीएच वाडिया ने बाबू भाई को फिल्म मुकाबला के डायरेक्शन की कमान सौंपी, वहीं होमी वाडिया ने बसंत पिक्चर्स की पहली फिल्म मौज का डायरेक्शन भी सौंप दिया। उनका कहना था- “सही मायनों में मुझे बतौर निर्देशक पहचान मिली 1956 की फिल्म सती नागकन्या से”।
तब के मशहूर कलाकारों महिपाल, निरूपा राय और मनहर देसाई के लीड रोल वाली तथा एस.एन. त्रिपाठी के मधुर संगीत से सजी इस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी ने हीं उन्हें अपने दौर के कामयाब निर्देशकों की सूची में लाकर खड़ा कर दिया।
कई दशक पहले बाबूभाई के गले से कैंसरग्रस्त स्वरग्रंथि को निकाल दिया गया था जिसकी वजह से उन्हें अपनी बात कहने के लिए कृत्रिम स्वर यंत्र का सहारा लेना पड़ता था।
बाबूभाई की बहन के बेटे और ‘सहारा न्यूज़ चैनल’ में कैमरा और स्टूडियो प्रभारी रहे कमलेश कापड़िया के मुताबिक़ बाबूभाई का ये ऑपरेशन 1960 के दशक की शुरुआत में, फ़िल्म ‘पारसमणि’ की रिलीज़ के दिनों में हुआ था। इसके बावजूद बाबूभाई ने तमाम मुश्किल हालात से जूझते हुए अपने करियर को कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचाया।
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बाबूभाई मिस्त्री की इस मज़बूत इच्छाशक्ति और कामयाबी को देखते हुए मुम्बई के मशहूर ‘टाटा मेमोरियल कैंसर अस्पताल’ ने कैंसर के मरीज़ों के प्रेरणास्वरूप बाबूभाई पर एक डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म का निर्माण किया था। देखा जाए तो फिल्म ‘मुकाबला’ और ‘मौज’ से शुरू हुआ बाबू भाई के निर्देशन का सफर चार दशकों से ऊपर तक जारी रहा।
इस दौरान उन्होंने हर हर गंगे, शमशीर, चंद्रसेना, माया बाजार, मदारी, भरत मिलाप, गणेश महिमा, कण-कण में भगवान, सम्राट चंद्रगुप्त, बेदर्द जमाना क्या जाने, सुनहरी नागिन, हातिमताई, किंगकांग, पारस मणि सहित ‘कलयुग और रामायण’ जैसी 63 फिल्मों और चर्चित धारावाहिक “शिव महापुराण” का निर्देशन भी किया।
फिल्मों में ट्रिक फोटोग्राफी और स्पेशल इफेक्ट के पुरोधा जैसे फिल्मकार को अधिक जानने के लिए मुम्बई के उपनगर विले पार्ले (ईस्ट) में दीनानाथ मंगेशकर हॉल के पास श्यामकमल बिल्डिंग
की दूसरी मंजिल पर स्थित उनके आवास के ड्राइंग रूम तक जाना ज्यादा जरूरी था, जो उन्हें मिले अनेक सम्मान, पुरस्कार और ट्राफियों से भरा पड़ा है और यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि का हकदार बनाता है।