धरा की बेटियाँ : कैसे भारत की खो-खो चैम्पियन बन रही हैं अपने परिवारों की असली “लक्ष्मियाँ”

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इस साल जब दीवाली के दीये भारत भर में झिलमिला रहे हैं — ओडिशा के आदिवासी इलाकों से लेकर राजस्थान के रेतीले गांवों तक, और पुणे की चॉलों से लेकर असम के कस्बों तक — कुछ परिवार एक अलग तरह की “लक्ष्मीपूजा” मना रहे हैं। यहपूजा न तो सोने-चांदी से सजी है, न बड़े कर्मकांडों से, बल्कि गर्व, आँसुओं और बेटियों की जीत से भरी है।

वे बेटियाँ, जिन्हें कभी कहा गया था कि खेल लड़कियों के लिए नहीं, आज खो-खो के मैदान पर अपने परिवारों और समाज के लिए सौभाग्य और सशक्तिकरण की मिसाल बन चुकी हैं।

ये वही बेटियाँ हैं — ओडिशा की मंगई मझी, राजस्थान की निर्मला भाटी, महाराष्ट्र की प्रियंका इंगले और असम की रंजन सारणिया — जिन्होंने “समृद्धि” का अर्थ ही बदल दिया है। आज उनके माता-पिता के लिए असली लक्ष्मी वे हैं — न इसलिए कि वे कितना कमाती हैं, बल्कि इसलिए कि वे क्या बन गई हैं।

मंगई का उपहार अपनी माँ के लिए

ओडिशा के रायगड़ा जिले के कसनदरागाँव में, जहाँ खेतों से सटे घने जंगल हैं, वहाँ दीवाली पहले साधारण ढंग से मनाई जाती थी। लेकिन इस बार 21 वर्षीय खो-खो वर्ल्ड कप स्टार मंगईमझी के घर के दीये और भी उजले जलेंगे।

मंगई की माँबुधावरी मझी ने अपने पति के निधन के बाद, जब मंगई सिर्फ एक महीने की थी, उसे अकेले पाला। गाँव वालों के ताने — “लड़कियों को खेल सिखाने का क्या फायदा?” — के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।

वह मुस्कुराते हुए कहती हैं, “हमारे यहाँ दीवाली बहुत साधारण होती थी, पर अब यहहमारे लिए खास बन गई है। मेरी बेटी ही मेरी लक्ष्मी है। उसने गाँव, राज्य और देश का नाम रोशन किया है। जब मैं उसके बारे में सोचती हूँ, तो गर्व से दिल भर जाता है।”

आज वही लोग जो कभी सवाल उठाते थे, अब अपनी बेटियों को खेलों में भेजने के लिए उनसे सलाह लेने आते हैं। मंगई हँसते हुए कहती है, “अब गाँव और जिले के लोग मुझसे पूछते हैं कि वे अपनी बेटियों को मेरे जैसा कैसे बना सकते हैं — यह मेरे लिए सबसे बड़ी तारीफ है।”

निर्मला भाटी का राजस्थानी पुनर्जागरण

ओडिशा से करीब 1600 किलो मीटरदूर, राजस्थान के पारेवाड़ी गाँव में, गीता देवी अपने घर के छोटे मंदिर में दिया जलाती हैं। उनकी बेटी निर्मला भाटी, जो कभी नंगे पैर खेतों में दौड़ती थी, अब राजस्थान की पहली अंतरराष्ट्रीय खो-खो चैम्पियन है और 2025 वर्ल्डकप की “बेस्ट प्लेयर ऑफ द टूनार्मेंट” भी।

गीता देवी कहती हैं, “पहले घर का नाम बेटे रोशन करते थे, अब हमारी बेटी ने किया है। यहाँ औरतें पर्दे में रहती हैं, लेकिन उसकी सफलता के बाद सोच बदल रही है। एक बुजुर्ग ने कहा — ‘निर्मला जैसी बेटियाँ सौ बेटों से बढ़कर हैं।’ इससे बड़ा तोहफा क्या हो सकता है इस दीवाली पर?”

उनके पिता ओम प्रकाश भाटी जोड़ते हैं, “हम लक्ष्मी पूजा करते हैं, पर हमारी असली लक्ष्मी हमारी बेटी है। उसने पूरे गाँव को गर्व से भर दिया है। अब और लड़कियाँ भी पढ़ाई और खेल में आगे बढ़ना चाहती हैं।” निर्मला की कहानी उस बदलाव की प्रतीक है, जहाँ कभी पर्दे में रहने वाली बेटियाँ अब गाँवों की पहचान बन रही हैं।

चॉल की लक्ष्मी

पिंपरी-चिंचवड़ के दिघी की एक छोटी सीचॉल में, सविता और हनुमंत इंगले पारंपरिक तरीके से दीवाली मना रहे हैं — पूरन पोली, नए कपड़े और तेल के दीये। पर इस बार घर में एक अलग ही रौशनी है। उनकी बेटी प्रियंका इंगले, भारत की खो-खो विश्व चैम्पियन टीम की कप्तान है और देश की सबसे सफल खिलाड़ियों में से एक।

सविता कहती हैं, “हम महाराष्ट्र में दीवाली बहुत धूमधाम से मनाते हैं, पर इस बार हमारे लिए असली उत्सव प्रियंका की उपलब्धियाँ हैं। वह ही हमारी लक्ष्मी है  — उसी की वजह से हमारा आर्थिक हाल सुधरा, समाज में सम्मान भी बढ़ा।”

प्रियंका अब आयकर विभाग में अधिकारी हैं। उनके पिता हनुमंत कहते हैं, “पहले हम उसकी भविष्य की चिंता करते थे, अब लोग हमें उससे पहचानते हैं। एक माता-पिता के लिए इससे बड़ी खुशी क्या होगी?”

असम की मिट्टी से उठी रौशनी

असम के तमुलपुर में इस बार दीवाली शांत है — राज्य अपने प्रिय गायक जुबिनगर्ग के निधन पर शोक मना रहा है। लेकिन विमला सारणिया के घर की आँखों में एक और तरह की चमक है। उनकी बेटी रंजन सारणिया ने 2023 एशियन खो-खो चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

विमला कहती हैं, “हम दीवाली नहीं मना रहे, लेकिन हमारा उत्सव मैदान पर है। हमें गर्व है कि हमारी बेटी भारत के लिए खेलती है।” असम के बोडो लैंड क्षेत्र में अब कई लड़कियाँ रंजन से प्रेरित होकर खो-खो खेलना शुरू कर चुकी हैं।

जब सशक्तिकरण ही बन जाए पूजा

ओडिशा, राजस्थान, महाराष्ट्र और असम — इन चारों राज्यों की बेटियों की कहानियों में एक साझा भाव है: जब संघर्ष और विश्वास से जन्मा सशक्तिकरण होता है, तो वही सच्ची पूजा है।

खो-खो, जो कभी सिर्फ स्कूल या गाँव के मैदान तक सीमित था, आज परंपरा और परिवर्तन का सेतु बन चुका है। इन परिवारों के लिए यह सिर्फ खेल नहीं, बल्कि बदलाव का प्रतीक है — जहाँ बेटियों ने अपने हिस्से की जगह भारत की कहानी में फिर से हासिल की है।

जब देश भर में दीवाली के दीये जल रहे हैं, इन घरों में जल रही है एक और ज्योति — दृढ़ संकल्प की, गर्व की, और उन बेटियों की, जिन्होंने मिट्टी से उठकर अपनी रोशनी से सबका जीवन प्रकाशित कर दिया।

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