संगीत का रिश्ता ‘मैं’ से नहीं होता, बल्कि इसमें ‘हम’ का भाव होता है

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लखनऊ। संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सहयोग से व्यंजना आर्ट एंड कल्चर सोसायटी द्वारा ‘ भारतीय रंगमंच की संगीत परंपरा एवं प्रयोग’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन लोक नाट्यों में संगीत परंपरा, रंगमंच में संगीत विधान, रास एवं रहस्य में कत्थक तथा आधुनिक रंगमंच में संगीत परंपरा विषयों पर जानकारी दी गई।

प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए दिल्ली से आए प्रख्यात रंग निर्देशक लोकेंद्र त्रिवेदी ने कहा कि हमारी संगीत से नातेदारी वैदिक काल से ही शुरु हो गई थी। हमारी संस्कृति में 3000 साल पहले से ही दो धाराएं समाहित हो चुकी थी, एक थी लोक धर्मी धारा और दूसरी नाट्य- धर्मी धारा।

श्री त्रिवेदी ने ‘माच’ लोक विधा के संबंध में भी जानकारी दी। गोवा से आए डॉ. साईश देशपांडे ने गांवडा जागोर नामक 2000 साल पुरानी लोग कला के संबंध में रोचक जानकारी दी। उन्होंने कहा कि संगीत का रिश्ता ‘मैं’ से नहीं होता, बल्कि इसमें ‘हम’ का भाव होता है।

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पंजाब से आई डॉ. इस मिति भारद्वाज ने पंजाबी लोक कला ‘नकल’ और ‘मिरासिस’ पर अपना व्याख्यान दिया तो महाराष्ट्र से आई डॉ. श्वेता जोशी ने मराठी नाट्य संगीत परंपरा पर बहुत ही रोचक व्याख्यान दिया। इस सत्र का संचालन कर रही डॉ ज्योति सिन्हा ने पूर्वांचल की लोक कलाओं में संगीत के प्रयोग की चर्चा की।

भारतीय नाटक अकेडमी में चल रही इस संगोष्ठी के अन्य सत्रों में ललित सिंह पोखरियाल, डॉ गवीश, व्योमेश शुक्ल, रेनु वर्मा, वीना सिंह, काजल घोष, अजय कुमार और विपिन कुमार ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

सत्रों का संचालन डॉ मीनू अवस्था, डॉ शशि प्रभा तिवारी और शांभवी शुक्ला के किया। इस अवसर पर उत्तर प्रदेश लोक एवं जनजाति संस्कृति संस्थान के निदेशक अतुल दिवेदी, डॉ धनंजय चोपड़ा आज उपस्थित रहे। आभार ज्ञापन डॉ मधु शुक्ला ने किया।

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